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वसीम बरेलवी कहते हैं- वो शेर को सिर्फ अपनी जुबान से ही नहीं बल्कि अपने जिस्म से भी आवाज देते थे, उसमें रंग भरते थे. उनके हाव-भाव की दुनियां कायल थी. बहुत कम ऐसे शायर होते हैं जिन्हें समाज के हर तबके में पसंद किया जाता हो, राहत साहब हर हलके में मकबूल थे.
अल्फ़ाज़ और अंदाज़ से बदल दी मुशायरे की फ़िज़ा
वसीम बरेलवी ने फोन पर बातचीत के दौरान अपनी पीड़ा बयां करते हुए कहा कि राहत उनके छोटे भाई जैसा था. वो पहला शायर थे जिसने कुछ ऐसा किया जो पहले कभी नहीं हुआ था. वसीम बरेलवी ने बताया कि राहत के शायरी की दुनियां में कदम रखने से पहले मुशायरों में इसे पढ़ने का अंदाज बिल्कुल अलग था. जमाना चाहे जिगर साहब का रहा हो या फिर शमीम जयपुरी साहब का, इन सभी के समय में गजल पढ़ने का अंदाज बिल्कुल अलग था. राहत इन्दौरी ने मुशायरों में शेर पढ़ने के एक नये अंदाज को जन्म दिया. उनके इस अंदाज को न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनियां में सराहा गया. वो बात करते हुए उनकी यादों में खो जाते हैं और कहते हैं कि और तो और राहत ने शेर पढ़ने का पूरा चलन ही बदल दिया. वसीम बरेलवी ने बताया कि राहत इन्दौरी से पहले शेर तरन्नूम में पढ़ा जाता था. यानी लय में गज़ल की तरह. राहत साहब के इस दुनियां में दाखिल होने से पहले ऐसा माना जाता था कि इस दुनियां में मशहूर होने के लिए ये बेहद जरूरी है लेकिन राहत इन्दौरी पूरी दुनियां के ऐसे पहले शायर थे जिन्होंने तरन्नूम की तर्ज पर शेर पढ़ने के सिलसिले को बदल डाला.
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हर कोई था राहत साब का मुरीद
वसीम बरेलवी बताते हैं वो लय में नहीं पढ़ते थे. वो तहत में पढ़ते थे, यानि बगैर लय के बातचीत जैसा. यानि शेर के भाव के हिसाब से उसे पेश करना. इतना ही नहीं राहत इन्दौरी की एक और खासियत थी जो उन्हें सबसे अलग करती थी. बडी लैंग्वेज- शेर पढ़ने के दौरान राहत साहब जैसी ब़डी लैंग्वेज यानी हाव-भाव किसी दूसरे में नहीं देखा जा सकता. वो शेर को सिर्फ अपनी जुबान से ही नहीं बल्कि अपने जिस्म से भी आवाज देते थे. उसमें रंग भरते थे. उनके हाव-भाव की दुनियां कायल थी. तरन्नुम की जो कमी हुई उसे राहत साहब ने अपने अंदाज से पूरा कर दिया करते थे उनके इस अंदाज को बहुत सराहा गया. वसीम बरेलवी ने एक और खासियत याद करते हुए कहा कि बहुत कम ऐसे शायर होते हैं जिन्हें समाज के हर तबके में पसंद किया जाता हो. राहत साहब हर हलके में मकबूल थे. वे ऐसे शायर थे जिन्हें नौजवान नस्ल जितना पसंद करती थी उतना ही उम्रदराज ऑडियेन्स भी. ऐसा इसलिए क्योंकि सम-सामयिक घटनाओं पर उनके शेर कहने का कोई तोड़ नहीं था. शेरो-शायरी के जितने भी रस होते हैं वे सभी के सभी राहत साहब की रचना में दिखायी देते हैं. ऐसी मकबूलीयत बहुत कम लोगों के हिस्से में आती है. आखिर में वसीम बरेलवी ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि ऊपर वाला उनके परिवार को हिम्मत दे.
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