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मार्च 1997 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission) (NHRC) के चेयरमैन जस्टिस एम एन वेंकटचलैया ने सभी मुख्यमंत्रियों को लिखा, कमीशन को लगातार आम जनता से जुडे़ सदस्यों और गैर सरकारी संगठनों से ये शिकायतें मिल रही हैं कि पुलिस द्वारा फेक एनकाउंटर्स की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं बजाए कि उनके खिलाफ कानूनी तौर पर आगे की प्रक्रियाओं का पालन किया जाए.
पुलिस को अधिकार नहीं कि किसी की जान ले
जस्टिस वेंकटचलैया 1993-94 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे. उन्होंने लिखा, हमारे कानूनों के अनुसार पुलिस को कोई अधिकार नहीं है कि वो किसी भी शख्स की जान ले और अगर उनके द्वारा ऐसा एक्ट किया जाता है कि पुलिसवालों ने किसी को मार दिया तो इसका मतलब ये हुआ कि उसने खुद कानून को तोड़ा है और ऐसे में उसके खिलाफ हत्या का मामला बनता है या फिर वो ये साबित करे कि कानूनी तौर पर उसका ये कृत्य किसी की हत्या करने का नहीं था.ये भी पढ़ें – क्या एनकाउंटर के मामले पर स्वतः संज्ञान ले सकती है अदालत
दो ही तरीके हैं जिनसे पुलिस कर सकती है बचाव
केवल दो ही ऐसे घटनाक्रम हैं, जिसमें ऐसी हत्याओं को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, पहला-अपनी खुद की रक्षा के लिए किसी को मारा जाए, दूसरा-भारतीय दंड संहिता की धारा46 के तहत पुलिस को बल प्रयोग करने का अधिकार दिया जाता है, जिसमें किसी की मृत्यु भी हो सकती है, जबकि ऐसा किसी ऐसे अपराधी को पकड़ने के दौरान किया जाए जिसने ऐसा कृत्य किया हो, जिसकी सजा मृत्युदंड या फिर आजीवन कारावास हो.
इन्हीं प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को समय समय पर ये सुनिश्चित करने को कहा है कि एनकाउंटर में होने वाली मौतों में दिशार्निदेंशों का पालन करें. जो इस तरह हैं
एनएचआरसी के निर्देश राज्यों को
एनएचआरसी ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को यह निर्देशित किया है कि वह पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत के लिए तय नियमों का पालन करे. वो नियम इस प्रकार हैं-
1. जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस एनकाउंटर की जानकारी प्राप्त हो तो वह इसके तुरंत रजिस्टर में दर्ज करे.
2. जैसे ही किसी तरह के एनकाउंटर की सूचना मिले और फिर उस पर किसी तरह की शंका ज़ाहिर की जाए तो उसकी जांच करना ज़रूरी है. जांच दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम या राज्य की सीआईडी के ज़रिए होनी चाहिए.
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3. अगर जांच में पुलिस अधिकारी दोषी पाए जाते हैं तो मारे गए लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए.
फिर एनएचआरसी ने गाइडलाइंस को और व्यापक किया
इसी तरह मई 2010 में NHRC के तत्कालीन कार्यवाहक चेयरमैन जस्टिस जीपी माथुर ने इसे दोहराते हुए कहा-पुलिस के पास कोई अधिकार नहीं बनता कि वो किसी की जान ले ले.
2010 में एनएचआरसी ने फिर कहा, उसकी गाइडलाइंस सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेज दी गई जो पहली बार 29 मार्च 1997 को जारी गाइडलाइंस को रिवाइज करके 02 दिसंबर 2003 तैयार की गईं थीं.
मानवाधिकार आयोग ने अक्सर माना है कि राज्य उसकी संस्तुतियों पर ध्यान नहीं देते. जब एनएचआरसी ने देखा कि कोई राज्य उसकी बात मानने को तैयार नहीं है तो उन्होंने अपनी इन गाइडलाइंस का दायरा और बढ़ा दिया, इसमें नई प्रक्रिया डाल दीं.
तीन महीने के भीतर मजिस्ट्रेट जांच
जब कभी पुलिस पर किसी तरह के ग़ैर-इरादतन हत्या के आरोप लगे, तो उसके ख़िलाफ़ आईपीसी के तहत मामला दर्ज होना चाहिए. घटना में मारे गए लोगों की तीन महीने के भीतर मजिस्ट्रेट जांच होनी चाहिए.
एनकाउंटर में मौत की रिपोर्ट 24 घंटे में सौंपी जाए
राज्य में पुलिस की कार्रवाई के दौरान हुई मौत के सभी मामलों की रिपोर्ट 48 घंटे के भीतर एनएचआरसी को सौंपनी चाहिए. इसके तीन महीने बाद पुलिस को आयोग के पास एक रिपोर्ट भेजनी ज़रूरी है जिसमें घटना की पूरी जानकारी, पोस्टमार्टम रिपोर्ट, जांच रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट जांच की रिपोर्ट शामिल होनी चाहिए.
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संविधान में एनकाउंटर का कोई जिक्र नहीं
भारतीय संविधान के अंतर्गत ‘एनकाउंटर’ शब्द का कहीं ज़िक्र नहीं है. पुलिसिया भाषा में इसका इस्तेमाल तब किया जाता है जब सुरक्षाबल/पुलिस और चरमपंथी/अपराधियों के बीच हुई भिड़ंत में चरमपंथियों या अपराधियों की मौत हो जाती है.
कानून नहीं ठहराता इसे जायज
भारतीय क़ानून में वैसे कहीं भी एनकाउंटर को वैध ठहराने का प्रावधान नहीं है. लेकिन कुछ ऐसे नियम-क़ानून ज़रूर हैं जो पुलिस को यह ताक़त देते हैं कि वो अपराधियों पर हमला कर सकती है और उस दौरान अपराधियों की मौत को सही ठहराया जा सकता है.
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