[ad_1]
क्या कह रहा है डेटा?
माइग्रेशन कमीशन (Migration Commission) के डेटा के मुताबिक अंतर्राष्ट्रीय सीमा (International Border) से 5 हवाई किलोमीटर के दायरे में बसे कम से कम 16 गांव खाली हो चुके हैं. यहां कोई परिवार अब बाकी नहीं है. बॉर्डर सुरक्षा का यह मामला पिछले दिनों उस मीटिंग में भी उछला, जिसमें उत्तराखंड के सीमा और आईटीबीपी के चीफ शामिल थे. इस मीटिंग में बॉर्डर के नजदीकी गांवों में रिवर्स माइग्रेशन, सड़क, मोबाइल कनेक्टिविटी और बिजली की उपलब्धता को लेकर चर्चा हुई थी और सीएम ने बॉर्डर एरिया डेवलपमेंट के तहत 10 करोड़ का फंड जारी किया.
उत्तराखंड के दूरस्थ इलाकों में सड़क न होने से मरीज़ों को कंधों पर अस्पताल ले जाने की खबरें आती रही हैं.
क्यों खाली हो रहे हैं ये गांव?
इस पहाड़ी इलाके में जीवन यापन संबंधी कई समस्याएं हैं और यहां किसी तरह का इन्फ्रास्ट्रक्चर गांवों तक पहुंचा नहीं है. बाराहोती और माना पास चमोली ज़िले में हैं और यहां निति और माना घाटी में सीमा पर बसे ग्रामीणों को लगातार सड़क, ट्रांसपोर्ट और संचार सुविधाएं देने के वादे किए जा रहे हैं ताकि वो पलायन न करें. चमोली डीएम स्वाति भदौरिया के हवाले से रिपोर्ट्स कह रही हैं कि यहां भौगोलिक स्थितियां कठिन हैं इसलिए बसें नहीं चल सकतीं लेकिन छोटी गाड़ियों की व्यवस्था की जा रही है.
ये भी पढ़ें :- तीन कोरोना वैक्सीन दौड़ में सबसे आगे, कौन सी वैक्सीन कब हो सकती है लॉंच?
आबादी का पलायन क्यों है चिंता का सबब?
उत्तराखंड से लगी चीनी सीमाओं पर तैनात भारतीय सुरक्षा बलों के लिए ये ग्रामीण आबादी बेहद अहम रही है. जोशीमठ में भोतिया जनजाति के लोगों के हवाले से टीओआई की रिपोर्ट कहती है कि इस समुदाय के लोग अपने मवेशियों को चराने के लिए बाराहोती तक करीब 100 किलोमीटर तक की यात्रा करते हैं और सीमा के छोरों तक जाते रहते हैं. ये लोग बताते हैं कि अक्सर चीनी आर्मी के सैनिक बाराहोती इलाके में पैट्रोलिंग करते दिखते हैं.
एक ग्रामीण पूरनदास सिंह के हवाले से रिपोर्ट में लिखा है कि चीनी सैनिक अक्सर ग्रामिणों के ठिकानों को तबाह कर उनका राशन बर्बाद कर देते हैं लेकिन भारतीय सुरक्षा बलों की मदद से उन्हें राशन आदि मुहैया हो पाता है. आईटीबीपी चाहती है कि बाराहोती में ग्रामीण लगातार जाते रहें ताकि इस इलाके में भारतीयों की मौजूदगी बनी रहे.
चमोली के सीमावर्ती ग्रामीणों का पलायन रोकने के लिए प्रशासन कोशिशें कर रहा है.
आईटीबीपी का स्थानीय इंटेलिजेंस सिस्टम
सिर्फ ग्रामीण आबादी ही नहीं, ये गड़रिये असल में भारतीय सेना के लिए स्थानीय इंटेलिजेंस का काम भी करते हैं. ये गड़रिये बताते हैं कि 1962 के युद्ध से पहले भारत की इन सीमाओं के ग्रामीण चीनी सीमा के ज़रिये तिब्बतियों के साथ व्यापार किया करते थे. यहां से गुड़ और चावल बेचा जाता था और बदले में तिब्बतियों से घी और ऊन खरीद ली जाती थी. लेकिन 62 के युद्ध के बाद ये सिलसिला खत्म हो गया.
ये भी पढ़ें :-
क्या कोरोना टेस्ट कराने में बहुत दिक्कत होती है, टेस्टिंग से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब
चांद पर उतरने के बाद आर्मस्ट्रॉंग और ऑल्ड्रिन ने वहां क्या किया था?
इसका असर ये हुआ कि यहां की आबादी पारंपरिक पेशे से अलग हो गई. अब यहां के लोग सरकारी नौकरियां चाहते हैं और मैदानी इलाकों में रहना चाहते हैं क्योंकि यहां जीना वैसे भी कठिन है और सुविधाओं के नाम पर न मोबाइल नेटवर्क है और न ही बिजली. सिर्फ खेती किसानी ही यहां जीने का सहारा है, जिसके भरोसे कई लोग लंबे समय तक जी नहीं सकते.
हालांकि सरकारी स्तर पर इस आबादी का पलायन रोकने के लिए मोबाइल टावर लगवाने और बुनाई की मशीनें देने जैसी कोशिशें हो रही हैं, लेकिन यहां लगातार आबादी का घटते जाना भारतीय सेना के लिए चिंता का विषय बना हुआ है क्योंकि चीनी मूवमेंट और रणनीति के लिहाज़ से ये ग्रामीण सेना के लिए बेहद ज़रूरी रहे हैं. ऐसे में, चीन अपनी विस्तारवादी सोच के चलते यहां भी सीमाएं हथियाने की कोई चाल न चल दे, चिंता इसलिए भी ज़रूरी है.
[ad_2]
Source