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क्या थे एक नायक पैदा करने वाले हालात?
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा था और धर्म के आधार पर बन रहे नए देश पाकिस्तान के सर्वेसर्वा मोहम्मद अली जिन्ना की ज़िद थी कि हर चीज़ का बंटवारा ऐसे हो, कि पाकिस्तान भारत के बराबर ही नज़र आए. ब्रिटिश राज में जो भारतीय सेना थी, उसका भी बंटवारा किया जा रहा था. ऐसे में, बलूच रेजिमेंट का जब ज़िक्र आया तो स्थिति ये थी कि इसके ज़्यादातर अफसर मुस्लिम थे और पाकिस्तान में जाने पर राज़ी भी.
मज़हब के नाम पर हो रहे बंटवारे के दौरान ऐसा होना अचंभे की बात नहीं थी, लेकिन आर्मी अफसर मोहम्मद उस्मान का रवैया इसके उलट था. जिन्ना के साथ ही उनके कई मुस्लिम सहयोगियों को उस्मान का यह ‘भारत प्रेम’ खटकने लगा था. अफगानिस्तान और बर्मा में अपने साहस और शौर्य से चर्चाएं बटोर चुके उस्मान पर जिन्ना हर दांव खेलना चाहते थे, लेकिन उन्हें क्या खबर थी कि उस्मान की रगों में उमड़ता खून हिंदोस्तानी मिट्टी का वफादार था, जो मज़हब से पहले देश सोचता था.जिन्ना की ‘इस्लाम की दुहाई’ और ऑफर किया खारिज
साम, दाम, दंड, भेद… उस्मान को हासिल करने के लिए हर तरीका अपनाने पर तुले पाकिस्तान के नेताओं मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान ने पहले उस्मान को इस्लाम की दुहाई दी और मुसलमान होने के नाते पाकिस्तान में शामिल होने के लिए फुसलाया, लेकिन उस्मान किसी और मिट्टी के बने थे, सो उन्होंने मंज़ूर नहीं किया.
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कश्मीर के नौशेरा में झनगड़ को पाकिस्तान से वापस लेने का श्रेय मो. उस्मान को दिया जाता है.
फिर जिन्ना ने उस्मान तक पैगाम पहुंचाया कि अगर वो पाकिस्तान का साथ दें और पाक सेना में शामिल हो जाएं तो उन्हें आउट ऑफ टर्न यानी कायदे ताक पर रखकर देश की आर्मी का प्रमुख बना दिया जाएगा. लेकिन ‘भारत के सपूत’ उस्मान ने इस लुभावने ऑफर को ठुकरा दिया. आखिरकार हुआ ये कि बंटवारे में बलूच रेजिमेंट पाकिस्तान सेना में चली गई और डोगरा रेजिमेंट में उस्मान को बड़ी ज़िम्मेदारी मिली.
क्यों उस्मान पर खेले गए थे इतने दांव
उस्मान ने शुरू से ही सेना में जाने का मन बनाया था और इसके लिए उन्होंने बाकायदा तालीम हासिल की. ब्रिटेन की रॉयल मिलिट्री अकादमी, सैंडहर्स्ट में उन्हें चुना गया. उल्लेखनीय यह था कि इसमें भारत से केवल 10 कैडेटों को चुना गया था, जिनमें से उस्मान एक थे. ब्रिटेन से शिक्षा लेकर 23 वर्षीय उस्मान जब भारत लौटे, तब उन्हें बलूच रेजिमेंट में तैनाती मिली. 27 सितंबर 1945 को लंदन गैजेट में कार्यवाहक मेजर के तौर पर उनका उल्लेख किया गया.
भारत के बंटवारे के समय सैन्य चर्चाओं में आए उस्मान दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अफगानिस्तान और बर्मा में अपनी वीरता के झंडे गाड़ चुके थे. इसी कारण उन्हें कम उम्र में ही पदोन्नत कर ब्रिगेडियर तक का पद मिल चुका था. ऐसे फौजी को अपनी तरफ खींचने के लिए पाकिस्तान हर कीमत देने पर उतारू था.
‘पूत के पांव पालने में’ दिखे
कहते हैं कि बचपन में ही लक्षण दिख जाते हैं कि बालक बड़ा होकर क्या रास्ता इख्तियार करेगा. मोहम्मद उस्मान का जन्म ब्रिटिश अधीन भारत के उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में 15 जुलाई 1912 को हुआ था. मां जमीलन बीबी थीं और पिता मोहम्मद फारुख खुनाम्बिर पुलिस अफसर थे और बनारस के कोतवाल तक रह चुके थे. फारुख चाहते थे कि उस्मान सिविल सर्विस में जाए, लेकिन उस्मान के इरादे सेना में जाने के ही रहे.
और ये इरादे महज़ बचपना नहीं थे. बचपन से ही दिलेर और बहादुर उस्मान ने 12 साल की उम्र में एक बच्चे के कुएं में गिर जाने पर कुएं में छलांग लगा दी थी और गहरे कुएं में बच्चे को डूबने से बचा भी लिया था. इस घटना के बाद लोगों ने महसूस किया था कि यह बच्चा एक दिन नाम कमाएगा. और हुआ भी यही.
इंसानियत, साथियों की भावना मज़हब से पहले
बहादुरी और देशप्रेम के अलावा उस्मान की इंसानियत की मिसालें भी कम नहीं हैं. मोहम्मद उस्मान ने अप्रैल 1945 से अप्रैल 1946 तक 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बलाटियन की कमान संभाली थी. इसके बाद, बंटवारे के बाद जब डोगरा रेजिमेंट में उस्मान तैनात थे, तो कहते हैं कि वहां ज़्यादातर साथी सैनिकों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए उस्मान शाकाहारी हो गए थे और मंगलवार को बजरंगबली की पूजा भी करते थे.
यही नहीं, उस्मान की इंसानियत की मिसालें भी दी जाती रही हैं. नौशेरा में अनाथ पाए गए 158 बच्चों की पूरी देखभाल और उनकी पढ़ाई लिखाई की ज़िम्मेदारी भी उस्मान ने उठाई थी और व्यस्तता में से समय निकालकर निभाई भी थी.
पाकिस्तान की नाक में किया दम
कठिन चुनौतियों का ज़िम्मा संभालने वाली 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर के रूप में उस्मान तैनात रहे. जम्मू-कश्मीर में तैनाती के वक्त उन्हें नौशेरा की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी. 1946-47 में पाकिस्तान को पहले ही ठेंगा दिखा चुके उस्मान जनवरी-फरवरी 1948 में सैनिकों के साथ जब नौशेरा में थे, तब पाकिस्तान की शह पर कबायलियों के हमले और घुसपैठ जारी रही.
इसी समय, 5000 कबायली नौशेरा में आए और एक मस्जिद की आड़ लेकर भारतीय सेना पर हमला बोल दिया. समस्या ये थी कि बीच में मस्जिद होने के कारण भारतीय सैनिक जवाबी गोलीबारी से हिचकिचाए, लेकिन तब उस्मान ने सामने आकर गोलीबारी शुरू की थी. इस हमले से पहले की कहानी गौरतलब है.
उस्मान क्यों कहलाए ‘नौशेरा के शेर’?
25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने झनगड़ पर कब्ज़ा कर लिया था. तब वेस्टर्न आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल केएम करिअप्पा ने जम्मू को हेडक्वार्टर बनाया था. झनगड़ और पुंछ को वापस लेना लक्ष्य था. 1948 में ब्रिगेडियर उस्मान की वीरता, नेतृत्व व पराक्रम से झनगड़ भारत ने जीत लिया और उस्मान को ‘नौशेरा का शेर’ कहा गया. तब पाक की सेना के हजार जवान मरे थे और इतने ही घायल हुए थे, जबकि भारत के 102 घायल हुए थे और 36 जवान शहीद हुए थे.
उस्मान के सिर पर 50 हज़ार का इनाम
झनगड़ के छिन जाने और अपने सैनिकों की मौतों से परेशान पाकिस्तान ने बौखलाकर घोषणा की थी कि ‘जो भी उस्मान का सिर कलम कर लायेगा, उसे 50 हजार रुपए का इनाम दिया जाएगा. एक तरफ, झनगड़ को फिर हासिल करने के लिए पाक के हमले जारी रहे. दूसरी तरफ, पाक को हर पल खटक रहे उस्मान के लिए घात लगाने में पाक सेना लगातार सक्रिय रही.
भारत पाक के बंटवारे के बाद काफी समय तक सीमा पर संघर्ष जारी रहा था.
उस्मान की मौत की दो कहानियां
एक कहानी कहती है कि 1948 की एक शाम पौने छह बजे के करीब उस्मान जैसे ही टेंट से बाहर निकले कि उन पर पाक सेना ने कायरता से छुपकर 25 पाउंड का गोला दाग दिया. दूसरी कहानी के मुताबिक नौशेरा की लड़ाई के बाद भारत और पाकिस्तान की सेनाएं भयंकर रूप से भिड़ीं. ब्रिगेडियर उस्मान खुद युद्ध का नेतृत्व कर रहे थे. लेकिन अचानक एक तोप का गोला ब्रिगेडियर उस्मान के पास आकर गिरा और वो चपेट में आ गए.
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झनगड़ को हासिल करने के लिए उस्मान ने सैनिकों के नाम जो पंक्ति कही थी, आज भी देशवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है. आखिरी जंग से पहले उस्मान के ये शब्द इतिहास में अंकित हो गए.
जुलाई उस्मान की याद का महीना
अपनी 36वीं सालगरिह से सिर्फ 12 दिन पहले three जुलाई को ब्रिगेडियर उस्मान यूद्धभूमि में शहीद हुए थे. लेकिन उनकी बदौलत भारत झनगड़ पर कब्ज़ा कर चुका था. ब्रिगेडियर उस्मान को उनके जोशीले नेतृत्व और साहस के लिए मरणोपरांत ‘महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया. उस्मान की शवयात्रा में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के साथ ही गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन, केंद्रीय मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और शेख अब्दुल्ला शामिल हुए थे. उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया कब्रगाह में हुआ था.
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