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साइकिल यात्राओं से बीज बम तक
समाजसेवी द्वारिका प्रसाद सेमवाल बीज बम आंदोलन के प्रणेता हैं. पिछले बीसेक साल से पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुकता पैदा करने के लिए और किसानों की ज़रूरतें, समस्याएं समझने के लिए वह देश भर में की साइकिल यात्राएं कर चुके हैं.
उन्हें भी यह महसूस हुआ कि पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड में खेती कम होते जाने की बड़ी वजह जंगली जानवर हैं. जब तक बंदर, सूअर खेती को नष्ट करना और गुलदार, बाघ, भालू लोगों पर हमले करना बंद नहीं करेंगे तब तक खेती करना मुश्किल ही रहेगा. इसके लिए ज़रूरी है कि जानवरों को जंगल में ही भोजन मिल जाए ताकि वह इंसानी आबादी तक न आएं.
बीज बम सप्ताह का शुभारंभ करते विधानसभा अध्यक्ष प्रेमचंद अग्रवाल. साथ में हैं इस आंदोलन के प्रणेता द्वारिका प्रसाद सेमवाल.
इस विचार के साथ उन्होंने और उनके कुछ साथियों ने 2017 में जंगलों में विभिन्न सब्ज़ियों, फलों के बीज फेंकने शुरु किए. लेकिन फिर देखा कि ज़्यादातर बीज पक्षी और बंदर खा जाते हैं. इसके बाद यह सोचा गया कि इन बीजों को मिट्टी और गोबर में लपेटकर फेंका जाए तो इनके अंकुरित होने की संभावना ज़्यादा रहेगी. हथगोले की तरह फेंके जाने वाले इन मिट्टी-गोबर के ढेलों को नाम दिया गया बीज-बम.
जानवरों को भी बचाना है
सेमवाल कहते हैं कि 2010 के बाद खेती को जानवरों के आतंक से बचाने के लिए वह कई कृषि विशेषज्ञों से मिले, बात की. वैज्ञानिक यह सलाह देते रहे कि ऐसी फ़सल पैदा कि जाए जो जानवर न खाते हों. उन्हें खेतों तक आने से रोकने के लिए सोलर फेंसिंग की जाए आदि. लेकिन बीज-बम आंदोलन से जुड़े लोगों को लगा कि यह स्थाई उपाय नहीं हैं. भूखा जानवर किसी न किसी तरह से खाने तक पहुंच ही जाएगा और तब वह और ज़्यादा हमलावर, शातिर होगा. और जो जानवर नहीं खाएंगे वह आप भी नहीं खा सकते हैं.
गांव में बीज बम बनातीं महिलाएं.
सेमवाल कहते हैं कि हमारी (हिमालयी राज्यों की) बारा अनाजा पद्धति (12 तरह के अनाज वाली खेती) संभवतः दुनिया की सबसे अच्छी कृषि पद्धति है. इसमें एक साथ कई फ़सलें होती हैं जैसे कि धान की रोपाई होती है तो मेड़ों पर सफ़ेद या काले भट्ट बो दिए जाते हैं. बंजर-सूखे खेतों में मंडवा हो जाता है.
आलू के खेत की बाड़ पर ढिंढकिया (पहाड़ी कद्दू) लगा दिया. वह सौ हो रहे हैं और इनमें से 10-20 जानवरों ने खा भी लिए तो कोई बात नहीं. इससे अपने खाने के लिए तो अनाज-सब्ज़ी हो ही जाती है, कुछ जानवर भी खा लेते थे. इस तरह हम जानवरों का भी ख़्याल रखते थे, उनका भी गुज़ारा चलता रहता था.
इस आंदोलन में बच्चे भी शामिल हैं जो अपने पर्यावरण को बचाने की मुहिम में लगे हैं.
अब खेती कम होने से जानवरों को भी नहीं मिल पा रहा है. ज़रूरी है कि जानवरों को जंगल में ही खाना मिल जाए ताकि वह आबादी की तरफ़ न आएं. इसीलिए बीज-बम आंदोलन शुरु किया गया.
छात्र, पुलिस, मंदिर
2017 में शुरु हुए बीज बम आंदोलन को तीसरे ही साल में बड़ी उपलब्धि हासिल हुई थी. साल 2019 में यह आंदोलन आठ राज्यों में पहुंच गया और कुल 502 जगहों पर बीज बम फेंके गए. इस साल कोरोना का असर इस पर भी पड़ा और आवाजाही पर पाबंदी की वजह से इस साल 200 स्थानों पर ही बीज बम फेंके जा सके.
हालांकि इस साल बीज-बम अभियान में तीन महत्वपूर्ण वर्गों को जोड़ने में द्वारिका प्रसाद सेमवाल को सफलता मिली है. पहला महत्वपूर्ण वर्ग है छात्र, दूसरा पुलिस और तीसरा धर्मगुरु.
छात्रों को अभियान से जोड़ने के लिए उत्तरकाशी के एक इंटर कॉलेज के शिक्षक ने उन्हें बीज-बम बनाने का होमवर्क दिया.
सेमवाल बताते हैं कि उत्तरकाशी में श्रीकालखाल के सरकारी इंटर कॉलेज के शिक्षक सुरक्षा रावत ने बच्चों को बीज बम बनाने का कार्य होम वर्क में दिया. बच्चे अपने घरों से बीज बम बनाकर लाए और फिर उन्हें फेंककर बीज-बम सप्ताह का शुभारम्भ किया गया. सेमवाल कहते हैं कि अगर छात्र-छात्राएं इस अभियान से जुड़ जाएं तो फिर यह प्रदेश भर में फैल जाएगा.
इसी तरह इस बार वह पुलिस अधिकारियों से भी मिले और उन्हें बीज बम अभियान के बारे में बताया. इसके बाद डीजी (कानून-व्यवस्था) अशोक कुमार के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों ने बीज-बम बनाए और फेंके. डीजी (कानून-व्यवस्था) ने कहा कि अगर पुलिसकर्मी स्वेच्छा से बीज-बम बनाने लगें तो इतनी बड़ी फ़ोर्स इस अभियान को बड़े आंदोलन में बदल सकती है.
देहरादून के डाट काली मंदिर के महंत गाड़ी लेकर मंदिर आने वालों को बीज-बम अभियान में शामिल होने के लिए कहने पर राज़ी हो गए हैं.
सेमवाल की कोशिश मंदिरों को भी इस अभियान से जोड़ने की है. वह इस साल देहरादून के डाट काली मंदिर के महंत से भी मिले जिन्होंने उन्हें इस अभियान से जुड़ने के लिए सहमति दे दी है. बता दें कि डाट काली मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं और देहरादून और आस-पास के क्षेत्रों में गाड़ी ख़रीदने वाले लोग सबसे पहले वहां जाकर आशीर्वाद लेत हैं.
सेमवाल ने महंत से आग्रह किया है कि वह गाड़ी लेकर आने वालों को बीज बम से जुड़ने को कहें. वह कहते हैं कि अगर और भी मंदिर इसमें शामिल हो जाएंगे तो यह आंदोलन जंगलों में इतनी सब्ज़िया-फल पैदा कर देगा कि जानवरों को इंसानी आबादी तक आने की ज़रूरत नहीं रहेगी.
बीज-बम अभियान से जुड़ने के लिए बस उत्साह और इस अभियान के लक्ष्य को समझने की ज़रूरत होती है.
शून्य बजट आंदोलन
हर साल उत्तराखंड में ही करोड़ों रुपये खर्च कर करोड़ों पौधे लगाए जाते हैं लेकिन वन विभाग की ही रिपोर्ट के अनुसार वृक्ष सिर्फ़ सघन वनों में ही बढ़े हैं जहां वृक्षारोपण नहीं होता. देश भर में होने वाले वृक्षारोपण कार्यक्रम अगर सफल होते तो शायद ही कहीं चलने-फिरने की जगह बचती.
इसके विपरीत बीज-बम मुफ़्त में बनते हैं और मुफ़्त में ही फेंके जाते हैं. सेमवाल कहते हैं कि जो भी सब्ज़ी-फल हम खाते हैं उनके बीजों को बचाकर रख लेते हैं और फिर उनसे बीज बम बना लेते हैं. इसके लिए स्थानीय मिट्टी और खाद का इस्तेमाल किया जाता है. ज़रूरत बस उत्साह और इस अभियान के लक्ष्य को समझने की है.
सेमवाल की कोशिश यह भी है कि अब इस अभियान से सरकार भी जुड़े. वह कहते हैं कि अगर सरकार हरेला की तरह बीज-बम अभियान को भी प्रोत्साहन दे तो यह जल्द सफल होगा. लेकिन इसे स्वतःस्फूर्त और बिना बजट वाला अभियान ही रहने देना होगा वरना इसका हाल भी वृक्षारोपण कार्यक्रमों की तरह हो जाएगा… पैसे की बंदरबांट होगी, नतीजा रहेगा शून्य. सफल शून्य बजट अभियान ही होगा.
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