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अतीत के झरोखों से जुड़ीं हैं वर्तमान की कड़ियां
पीछे मुड़ कर देखने पर हम पाते हैं कि लगभग तीन दशक पहले भी राम-मंदिर आंदोलन के घटनाक्रम में गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार आपस में जुड़े हुए थे और वर्तमान घटनाचक्र में भी तीनों राज्य किसी ना किसी रुप में शामिल हैं. कहानी में सबसे पहले मंदिर शिलान्यास की बात कर लें, जब 9 नवंबर 1989 को विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (RSS) ने अयोध्या में राम मंदिर की नींव रखने का फैसला लिया तो पहली ईंट बिहार के दलित कामेश्वर चौपाल से रखवाई गई. शिलान्यास कार्यक्रम में कामेश्वर चौपाल को तत्कालीन विहिप प्रमुख अशोक सिंघल के ठीक बगल में बैठाया गया. ये वही कामेश्वर चौपाल हैं जो अभी ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र’ ट्रस्ट (Shri Ram Janmabhoomi Teerth Kshetra) के 15 सदस्यों में एक हैं. अब बिहार के कामेश्वर चौपाल और अयोध्या के मंदिर से मामला सीधे गुजरात (Gujrat) पहुंचता है. 25 सितंबर 1990 को बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी (LK Advani) की अगुवाई में सोमनाथ मंदिर (Somnath Temple) से अयोध्या के लिए एक रथ यात्रा (Rath Yatra) निकली, जिसके संयोजक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. रथ यात्रा को जबरदस्त जन समर्थन मिला. रथयात्रा को 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था लेकिन 23 अक्टूबर 1990 को बीजेपी के तत्कालीन सहयोगी दल (जनता दल) के नेता लालू प्रसाद यादव ने इसे बिहार में ही रोक दिया और वहीं से पूरे देश की राजनीति बदल गई. इस घटनाक्रम से सबसे ज्यादा फायदा बिहार में लालू प्रसाद यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों को मिला. वहीं राष्ट्रीय परिदृश्य पर बीजेपी लंबी छलांग मारती दिखी और सबसे ज्यादा घाटा कांग्रेस को हुआ.
राम मंदिर की पहली ईंट बिहार के दलित कामेश्वर चौपाल से रखवाई गई (फाइल तस्वीर)
राजनैतिक पार्टियों के बदल चुके हैं समीकरण
सवर्ण वोट बैंक कमोवेश उसी समय से बीजेपी के पाले में आ गया, वहीं पिछड़े, दलितों और मुस्लिम वोट बैंक पर क्षेत्रीय दलों का कब्जा हो गया. लालू प्रसाद यादव जानते थे कि रथ रोकते ही बीजेपी के सहयोग से चल रही केंद्र की वीपी सिंह सरकार गिर जाएगी, उसके बावजूद उन्होंने रथ रोककर रथ यात्रा के सारथी लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया क्योंकि लंबी राजनैतिक पारी खेलने के लिहाज से यही उपयोगी कदम था. दशकों तक सत्ता में रहने के बाद आज उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय क्षत्रप सत्ता से बाहर हो चुके हैं. राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी दो तिहाई बहुमत से सरकार में है और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस खुद को जिंदा रखने की जद्दोजहद में लगी है. लेकिन बिहार में राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है. कभी लालू यादव के सहयोगी रहे नीतीश कुमार बीजेपी के हमराह हैं. लेकिन बीजेपी में स्वतंत्र रुप से सत्ता में आने की छटपटाहट साफ दिखती है. 1989 के पालमपुर संकल्प में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का वादा किया गया था, उसका असर ये रहा कि बीजेपी ने 1989 के लोकसभा चुनाव में 85 सीटें पाई. तब से न्यायालय का फैसला आने तक लगातार बीजेपी अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण का वादा करती आई है. उत्तर प्रदेश में 1991 में बीजेपी पहली बार सत्ता में आई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये तीर करेगा बीजेपी की राह आसान!
तब से बीजेपी का ग्राफ यूपी में घटता-बढ़ता रहा वहीं बिहार में भी जनता दल यूनाइटेड के साथ मिलकर बीजेपी ने सत्ता के गलियारे में पैठ बनाई. मुखौटा हमेशा नीतीश कुमार (Nitish Kumar) रहे, लेकिन इस बार अयोध्या से राम मंदिर निर्माण का तीर चलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी के लिए अकेली राह आसान करने की कोशिश करेंगे. सवर्णों को अपने पाले मे खिंचने के बाद राम विलास पासवान को साथ लेकर बीजेपी ने दलित वोट बैंक को जोड़ने का काम बखूबी किया, वहीं नीतिश कुमार की छवि के जरिए पिछड़े वोट बैंक में भी सेंध लगाई. लोकसभा 2014 के चुनावी आंधी में बीजेपी के एजेंडे के आगे सभी बह गए. लेकिन तुरंत बाद 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जोर का झटका लगा जब नीतिश कुमार ने अपने पूर्व सहयोगी लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के साथ मिलकर सरकार बना ली. बीजेपी ठगी सी देखती रह गई. बीजेपी ने अपने दांव से सत्ता के गलियारे में सेंधमारी जारी रखी जिससे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के रास्ते फिर से अलग-अलग हो गए और एक बार फिर नीतीश लौटकर भाजपा के साथ सरकार बनाई लेकिन बीजेपी फिर भी बैकसीट ड्राइव की भूमिका में ही रही और सरकार का चेहरा नीतिश कुमार ही बने रहे.
भाजपा भावनाओं के साथ खेलने वाली पार्टी: कांग्रेस
नवंबर 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारियो में बीजेपी सबसे आगे रही है. राम मंदिर मुद्दे के बिहार विधानसभा चुनावों में पड़ने वाले असर को लेकर किए गए सवाल पर बीजेपी नेता विजयबहादुर पाठक पार्टी की रटी-रटाई लाइन दोहराते हुए कहते हैं कि राम मंदिर निर्माण बीजेपी के लिए चुनावी एजेंडा कभी हो ही नहीं सकता. राम मंदिर भाजपा के लिए आस्था का विषय था और रहेगा. वे कहते हैं कि राम मंदिर का निर्माण तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हो रहा है, और भारत के प्रधानमंत्री का भूमि पूजन में अयोध्या पहुंचना करोड़ों लोगों के भगवान श्रीराम में आस्था के सम्मान का प्रतीक है. इससे पहले भी आधिकारिक तौर पर भारत सरकार सोमनाथ मंदिर का जीर्णोंद्धार करा चुकी है. इसको राजनीतिक नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए. कोरोनाकाल (Coronavirus disaster Time) में बीजेपी लगातार सक्रिय रही है और जनता के सेवा का काम चल रहा है. राजनैतिक फायदा पार्टी इन कामों से लेगी जो वो जनता के लिए कर रही है.
लेकिन उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का कहना है कि भगवान श्रीराम में सबको आस्था है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा भावनाओं के साथ खेलने वाली पार्टी है. लल्लू कहते हैं कि एक तरफ कोरोना महामारी, बाढ़, से बिहार जूझ रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर अर्थव्यवस्था मुंह के बल है ऐसे में भी बीजेपी लगातार सरकार गिराने और बिहार, बंगाल के चुनाव पर ही फोकस किए हुए है. वे कहते हैं कि बीजेपी की सरकार को संजीदगी बरतनी चाहिए. बीजेपी जन कल्याण कर राजनीतिक लाभ लेने की आदत डाले ना कि भावनाओं के साथ खेलकर. बिहार को लेकर वे कहते हैं कि वहां के लोग राजनीतिक रुप से ज्यादा सजग हैं. वहां के लोग जीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले विषयों पर वोट करते हैं, लोक लुभावन मुद्दों पर नहीं.
बिहार चुनाव में मंदिर मुद्दे के प्रभाव पर बात करते हुए समाजवादी चिंतक और मुलायम सिंह के सहयोगी रहे सीपी राय कहते हैं कि बिहार की राजनीति में जाति इतनी गहराई से जुड़ी रहती है कि राममंदिर निर्माण जैसा मुद्दा किसी को प्रत्यक्ष तौर पर कोई बहुत फायदा नहीं पहुंचा पाएगा. वे इतना जरुर मानते हैं कि वहां विपक्ष कमजोर है जिसका फायदा बीजेपी को मिलेगा, आरएसएस और बीजेपी की रणनीति है कि छलकपट, हेराफेरी किसी भी तरह खुद सत्ता में पहुंचे और वे इसी की तैयारी में लगे हैं. वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव भी इस तथ्य को ही रेखांकित करते हैं कि बिहार की राजनीति में जाति की भूमिका ही सबसे प्रभावी होती है.
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विकल्पहीनता का BJP को मिल सकता है फायदा
बिहार के पत्रकार सुनील पांडेय कहते हैं कि बीजेपी समर्थित नीतिश सरकार से आम जनता कहीं भी खुश नहीं है, लेकिन विकल्पहीनता का फायदा भाजपा को ही मिलेगा. वे कहते हैं कि राममंदिर निर्माण की भूमिका इसमें क्या होगी ये कहना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि अभी जनता कोरोना महामारी और बाढ़ से तबाह है और ऐसे में पिछले पंद्रह साल का मूल्यांकन हो रहा जिसमें वर्तमान बिहार सरकार कहीं टिक नहीं पा रही है, जिसमें बीजेपी भी शामिल है. इन सब बातों से अलग सुधरती दिखाई देगी. बिहार हमेशा उम्मीद से अलग परिणाम देता रहा है और इसबार चौकाती रही है. राजनीति हमेशा संभावनाओं का ही खेल रही है. शायद इसलिए बीजेपी राममंदिर के भूमिपूजन कार्यक्रम को लेकर इतनी उत्साहित है. एक तरफ कोरोना महामारी से उपजी तमाम परेशानियां सरकार से लेकर जनता के सामने है ऐसे में भी इस कार्यक्रम को यथासंभव भव्यता के साथ संपन्न किया जा रहा है. दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद की जमीनी तैयारी है, जिसके माध्यम से प्रधानमंत्री द्वारा भूमिपूजन का संदेश घर घर पहुंचेगा और जिसका असर निश्चित ही आने वाले समय में बिहार की राजनीति पर भी देखने को मिलेगा. और इसके बाद एक बार फिर बिहार में राजनीति नई करवट लेती दिखाई देगी.
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