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इस एनकाउंटर के बाद तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. कुछ इसके पक्ष में हैं तो कुछ कहा कहना है कि आखिर वो कौन सी बात थी कि कानूनी प्रक्रिया तक इस मामले को नहीं ले जाने के लिए विकास दुबे का एनकाउंटर करके उसकी जान ले ली गई.
पुलिस एनकाउंटर पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. विकास दुबे के जघन्य कृत्य के बाद भी ये सवाल उठता है कि क्या ये एनकाउंटर जरूरी था? क्या न्यायिक व्यवस्था के दायरे में आरोपियों को सजा दी जाती तो ज्यादा अच्छा नहीं रहता? और सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि चाहे आरोपी ने कितना भी संगीन अपराध क्यों न किया हो क्या पुलिस के पास उसकी जान लेने का अधिकार है?
पुलिस एनकाउंटर पर क्या कहता है कानून?2015 में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था. महाराष्ट्र में पुलिस के किए 99 एनकाउंटर पर सवाल उठाए गए थे. 1995 से 1997 के दौरान महाराष्ट्र में पुलिस एनकाउंटर में 135 लोग मारे गए थे. ये 1993 में हुए बम ब्लास्ट के बाद का दौर था. मुंबई की कानून व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए वहां की पुलिस सख्ती पर उतर आई थी. इसी दौरान पुलिस ने कई एनकाउंटर किए थे.
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हर एनकाउंटर की मजिस्ट्रेट जांच जरूरी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में हर पुलिस एनकाउंटर में हुई मौत की मजिस्ट्रेट से जांच को जरूरी कर दिया है, ताकि ये पता चल सके कि ऐसे एनकाउंटर में पुलिस की भूमिका क्या थी, और क्या पुलिस एनकाउंटर जरूरी था.
क्या किसी भी परिस्थिति में हत्या को जायज ठहराया जा सकता है?
कानूनन किसी भी तरह के आरोपी को मार डालने को जायज नहीं ठहराया जा सकता. चाहे आरोपी ने रेप या हत्या जैसा गंभीर अपराध ही क्यों नहीं किया हो. मजबूत न्यायिक व्यवस्था कायम रखने के लिए ये जरूरी है. पुलिस या कोई जांच एजेंसी किसी अपराध की जांच करते वक्त कोई फैसला नहीं सुना सकती. पुलिस का काम सिर्फ जांच करना है. जांच के आधार पर फैसला देना न्याय व्यवस्था का काम है.
इंडियन पीनल कोड और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के मुताबिक सिर्फ मौत होने वाले हालात में ही आत्मरक्षा में किसी की जान लेना अपराध के दायरे में नहीं आता है. लेकिन इसे भी साबित करना पड़ता है.
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क्या पुलिस को भी कानूनन छूट हासिल है
इस लिहाज से कानूनन पुलिस को कुछ छूट भी हासिल है. इंडियन पीनल कोड का का सेक्शन 96 कहता है कि अगर पुलिस अपनी आत्मरक्षा में कोई कदम उठाती है तो वो अपराध के दायरे में नहीं आता. आईपीसी के सेक्शन 100 में वैसी स्थितियों का जिक्र किया गया है, जिसके अंतर्गत आत्मरक्षा के अधिकार का इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें उस हालात की भी चर्चा की गई है, जिसमें अगर आत्मरक्षा में हमलावर के खिलाफ कार्रवाई न की जाए तो जान भी जा सकती है.
इस बिना पर पुलिस एनकाउंटर को जायज ठहराती है
इसी तरह से सीआरपीसी का सेक्शन 46 कहता है कि अगर कोई आरोपी या संदिग्ध अपनी गिरफ्तारी का विरोध करता है या गिरफ्तारी से बचना चाहता है तो ऐसी स्थिति में पुलिस सभी जरूरी कदम उठा सकती है. इसमें ये भी जिक्र है कि पुलिस के पास किसी की जान लेने की वजह बनने का अधिकार नहीं है, जब तक की आरोपी ने मौत की सजा या फिर उम्रकैद की सजा के बराबर का अपराध नहीं किया हो.
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इसी का सहारा लेकर अक्सर पुलिस एनकाउंटर को जायज ठहराने की कोशिश की जाती है. पुलिस को मिले इस अधिकार की वजह से अक्सर ये कहा जाता है कि अगर फांसी की सजा या उम्रकैद की सजा के बराबर अपराध करने वाली अपराधी की पुलिस के हाथों मौत हो जाती है तो इसे इंसाफ के एक पुलिसिया ऑप्शन की तरह देखा जाए.
पुलिस एनकाउंटर पर सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन
सुप्रीम कोर्ट के 2015 के फैसले में 16 पॉइंट का गाइडलाइन दिया गया है. उसी की कसौटी पर न्यायिक व्यवस्था के बाहर हुई हत्या को कसा जाता है. खासतौर पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था पुलिस की मौजूदगी में हुई ऐसी हत्या, जिसमें गन का इस्तेमाल हुआ है, उसकी जांच अनुभवी सीआईडी के अधिकारी या किसी दूसरे पुलिस स्टेशन के अधिकारी या मजिस्ट्रेट करें. ऐसी परिस्थिति में मानवाधिकार आयोग को भी जानकारी दी जाए.
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