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इस एनकाउंटर (Encounter) में कितनी सच्चाई है, यह तो जांच के बाद पता ही चलेगा, लेकिन इस बीच पुलिस एनकाउंटर का जो सामान्यीकरण, उसकी जनस्वीकार्यता और वाहवाही का जो माहौल है, वह देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं, कानून और देश में न्याय की अवधारणाओं पर एक बार फिर वही सवाल खड़े करती है
Source: Information18Hindi
Last up to date on: July 10, 2020, 1:13 PM IST
इस एनकाउंटर में कितनी सच्चाई है, यह तो जांच के बाद पता ही चलेगा, लेकिन इस बीच पुलिस एनकाउंटर का जो सामान्यीकरण, उसकी जनस्वीकार्यता और वाहवाही का जो माहौल है, वह देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं, कानून और देश में न्याय की अवधारणाओं पर एक बार फिर वही सवाल खड़े करती है, जैसे कि हैदराबाद में बलात्कार के अपराधियों के एनकाउंटर पर हुए थे. हालांकि हैदराबाद में हुए एनकाउंटर से इसकी तुलना करना ठीक नहीं है, पर इन दोनों ही घटनाओं में यदि कोई समानता है तो वह यह है कि किसी जुर्म की सजा देने के लिए भारत की प्रचलित कानून और न्याय व्यवस्था का खुला उल्लंघन.
अपराधी विकास दुबे ने बहुत ही चतुराई से उज्जैन में अपनी गिरफ्तारी की पटकथा रचकर एनकाउंटर से बचने की कोशिश की थी. आठ पुलिसवालों की दुर्दांत हत्या के बाद उसे यूपी पुलिस के सामने जाने का अर्थ पता था, बहरहाल यह पटकथा भी उसे बचाने में नाकामयाब हुई. अंतत: उसका वही हश्र हुआ जो कभी न कभी एक अपराधी का होता ही है.
विकास दुबे के एनकाउंटर के बाद कई लोगों के कपड़े उतरने से भी बच गए. देश की जनता के सामने जो भी घटनाक्रम सामने है उसके बाद उसे यह सोचना चाहिए कि यह न्याय की जीत है या अपराध की जीत है. आखिर इतने सक्षम और काबिल तंत्र के लिए एक विकास दुबे का जीवित अवस्था में कोर्ट तक ले जाना इतना ज्यादा कठिन था? क्या वास्तव में पुलिस और सरकार यह चाहती थी कि विकास दुबे नाम का यह शख्स जीवित अवस्था में कोर्ट तक जाना चाहिए और देश की कानून और न्याय व्यवस्था के जरिए उसे अपने अपराधों की कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. क्या वाकई सरकार की यह मंशा रही कि विकास दुबे के माध्यम से वह उन सभी अपराधियों तक भी पहुंचती, जो इस समाज के लिए अब भी घातक बने हुए हैं. शायद नहीं, यदि ऐसा सोचा गया होता तो ऐसा होता भी.
इसमें सबसे बड़ा दोष भारत की उस लचर न्याय व्यवस्था का है जो सालों साल अदालतों का चक्कर लगवाती हैं. अब सब कुछ फास्ट और डिजिटल हो गया है, उस वक्त में भी कोर्ट में कामकाज की गति हमें बढ़ी हुई नहीं दिखाई देती है. जनता के सामने अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधी गवाहों और सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं. ऐसे में यदि सबसे ज्यादा किसी को आत्मचिंतन करने की जरूरत है तो वह भारत की न्याय व्यवस्था ही है. वह अपनी व्यवस्था को जितना जल्दी ठीक कर पाए, देश के लिए वह उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो फिर देश का जनमानस पुलिस के किसी ऐसे कथित एनकाउंटर का स्वागत नहीं, उस पर सवाल खड़े करेगा.
लेकिन हम जैसा समाज फिलहाल बना रहे हैं वहां इतनी जल्दी यह सब कुछ रातों रात सुधर पाना कठिन ही नहीं असंभव जान पड़ता है. जब हम अपनी संसद और विधानसभा में बड़ी संख्या में अपराधियों को चुनकर भेज देते हैं, ऐसे समाज में हम नैतिकता की कितनी और कैसी उम्मीद करे. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट बताती है कि उत्तरप्रदेश में ही 45 प्रतिशत मंत्रियों ने अपने शपथ पत्रों में खुद पर आपराधिक मामले दर्ज होना बताया. पिछले चुनाव में 18 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवार थे, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें तकरीबन 15 प्रतिशत ऐसे उम्मीदवार थे जिन पर हत्या, बलात्कार जैसे संगीन मामले चल रहे थे. यह परिस्थितियां किस ओर इशारा करती हैं ?
इसलिए मामला केवल विकास दुबे भर का नहीं है. इस देश की न्याय और कानून व्यवस्था के जरिए तमाम तरह के अपराधों का त्वरित उनकाउंटर करने की जरूरत है, वरना तो यह एक दिन का खबरिया मसाला भर है. जिस देश में संविधान और न्याय व्यवस्था को दरकिनार कर एनकाउंटर को स्वीकार्यता मिलने लगे, उसे ठहरकर एक पल को सोचना चाहिए कि क्या हम ठीक दिशा में जा रहे हैं ? (ये लेखक के निजी विचार हैं)
First printed: July 10, 2020, 12:52 PM IST
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