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कानून और पीआईएल
बता दें कि 6 जुलाई को चारधाम देवस्थानम एक्ट पर उत्तराखण्ड हाईकोर्ट में सुनवाई पूरी हो गई थी और हाईकोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था. हाईकोर्ट ने 29 जून से इस मामले में फ़ाइनल हियरिंग शुरू की थी. पहले सरकार ने अपना पक्ष रखा, फिर इस मामले में सरकार के समर्थन में आई रुलेक संस्था ने अपना पक्ष रखा और फिर इस कानून को चुनौती देने वाले बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने अपने तर्क पेश किए.
पिछले साल नवंबर-दिसंबर में उत्तराखंड सरकार ने बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत प्रदेश के 51 मंदिरों का प्रबंधन हाथ में लेने के लिए चार धाम देवस्थानम एक्ट से एक बोर्ड, चार धाम देवस्थानम बोर्ड बनाया था. तीर्थ पुरोहित शुरु से ही इसका विरोध कर रहे थे, बाद में उन्हें बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी का भी साथ मिल गया.इसके अलावा केदार सभा व गंगोत्री के पंडा पुरोहितों ने भी याचिका दाखिल कर सरकार के फैसले का कोर्ट में विरोध किया, तो देहरादून की रुलेक संस्था ने सरकार के बचाव में अपनी याचिका दाखिल की.
चुनौती का आधार
त्रिवेंद्र रावत सरकार के इस एक्ट को हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा था कि राज्य सरकार का एक्ट संविधान की धारा 25, 26 और 31 के विरुद्ध है और सुप्रीम कोर्ट के 2014 के आदेश का उलंघन भी करता है. याचिका में मुख्यमंत्री समेत अन्य को बोर्ड में रखने का भी विरोध किया गया.
सुब्रमण्यम स्वामी ने इस जनहित में कहा कि सरकार और अधिकारियों का काम अर्थव्यवस्था, कानून-व्यवस्था की देखरेख करना है न कि मंदिर चलाने का. मन्दिर को भक्त या फिर उनके लोग ही चला सकते हैं लिहाजा सरकार के एक्ट को निरस्त किया जाए.
सरकार के तर्क
सरकार ने स्वामी के जवाब में कहा कि राज्य सरकार का एक्ट एकदम सही है और वह किसी की भी धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन नहीं करता और उसके धार्मिक स्थलों से दूर नहीं करता.
सरकार ने मन्दिरों के धार्मिक स्थलों के महत्व को रखते हुए कहा कि राज्य सरकार जो एक्ट लेकर आई है उसके तहत सभी खर्चे व चढ़ावे का हिसाब-किताब रखा जाना है, जिसके चलते इसका विरोध हो रहा है.
रुलेक का पक्ष
रुलेक संस्था के वकील कार्तिकेय हरि गुप्ता ने कहा कि उत्तराखंड के मंदिरों के प्रबंधन के लिए बना यह पहला एक्ट नहीं है बल्कि ऐसा ही कानून सौ साल पुराना है. बदरीनाथ धाम के प्रबंधन में गड़बडियां सालों से हो रही हैं.
देहरादून की रुलेक संस्था के अधिवक्ता कार्तिकेय हरि गुप्ता ने कोर्ट को बताया कि यह कोई एक्ट पहला नहीं है बल्कि 100 साल पूराना है और बद्रीनाथ की गड़बडियां सालों से हो रहे हैं. उन्होंने कहा कि 1899 में हाईकोर्ट ऑफ कुमाऊं ने स्क्रीम ऑफ़ एडमिनिस्ट्रेशन के तहत इसका मैनेजमेंट टिहरी दरबार को दिया था और धार्मिक क्रियाकलाप का अधिकार रावलों व पण्डे-पुरोहितों को दिया गया था. 1933 में मदन मोहन मालवीय ने अपनी किताब में इसका ज़िक्र किया है. मनुस्मृति में भी कहा गया है कि मुख्य पुजारी राजा ही होता है और राजा चाहे तो किसी को भी पूजा का अधिकार दे सकता है.
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