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उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) ने पिछले सप्ताह इसके साफ संकेत देते हुए कहा कि उनकी पार्टी अब छोटे दलों से ही गठबंधन कर चुनाव लड़ेगी.अखिलेश ने समाजवादी पार्टी से विद्रोह कर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बनाने वाले अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव से भी गठबंधन करने की बात कही. शिवपाल यादव की ओर से भी उसका सकारात्मक जवाब दिया गया है.
पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ समझौता कर चुनाव मैदान में उतरे थे और अपनी सत्ता गँवा दी थी. इसके बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा, लेकिन सपा को बहुत लाभ नहीं मिला. सपा सिर्फ पांच सीटों पर ही रह गई लेकिन बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटें जरूर मिल गईं. समाजवादी पार्टी ने पिछले उप चुनावों में राष्ट्रीय लोकदल के लिए एक सीट छोड़ी थी और यह संकेत है कि आगे भी वह रालोद से तालमेल कर सकती है. इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में असर रखने वाले ‘महान दल’ के नेता केशव देव, अखिलेश यादव के साथ दिख रहे हैं. लोकसभा चुनाव में जनवादी पार्टी के संजय चौहान, सपा के चुनाव चिन्ह पर चंदौली में चुनाव लड़कर हार चुके हैं और वह भी अखिलेश यादव के साथ सक्रिय हैं.
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले अपनी मजबूती साबित करने के लिए उत्तर प्रदेश के सभी प्रभावी दलों को भी गठबंधन की जरूरत महसूस होने लगी हैं और चूंकि इस राज्य में छोटे-छोटे कई दल जातियों की बुनियाद पर ही अस्तित्व में आये हैं, इसलिए उनका समर्थन फ़ायदेमंद हो सकता है. वैसे तो उत्तर प्रदेश में वर्ष 2002 से ही छोटे दलों ने गठबंधन की राजनीति शुरू कर जातियों को सहेजने की पुरजोर कोशिश की है, लेकिन इसका सबसे प्रभावी असर 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला, जब राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के अलावा करीब 290 पंजीकृत दलों ने अपने उम्मीदवार उतारे थे. इसके पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में भी दो सौ से ज्यादा पंजीकृत दलों के उम्मीदवारों ने किेस्मत आज़माई थी.
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भारतीय जनता पार्टी ने 2017 में अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के साथ गठबंधन का प्रयोग किया. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग में प्रभावी कुर्मी समाज से आने वाली सांसद अनुप्रिया पटेल इस दल की अध्यक्ष हैं जबकि अति पिछड़े राजभर समाज के नेता ओमप्रकाश राजभर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का नेतृत्व करते हैं. भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में सुभासपा को eight और अपना दल को 11 सीटें दीं तथा खुद 384 सीटों पर मैदान में रही. भाजपा को 312, सुभासपा को four और अपना दल एस को 9 सीटों पर जीत मिली थी.
गोरक्षपीठ के महंत योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार में इन दोनों दलों को शामिल किया गया लेकिन सुभासपा अध्यक्ष और योगी मंत्रिमंडल में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने पिछड़ों के हक के सवाल पर बगावत कर पिछले वर्ष भाजपा गठबंधन से नाता तोड़ लिया.
ओमप्रकाश राजभर बिहार के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के गठबंधन में शामिल हुए जिसमें बहुजन समाज पार्टी भी शामिल थी. पर अब राजभर उत्तर प्रदेश में 2022 के लिए नये प्रयोग में जुट गये हैं. ओमप्रकाश राजभर ने पीटीआई-भाषा से बातचीत में कहा, “देश में अभी गठबंधन की राजनीति का दौर है इसलिए हमने भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया है जिसमें दर्जन भर से ज्यादा दल शामिल हैं.”
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राजभर के मुताबिक पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा की जनाधिकार पार्टी, कृष्णा पटेल की अपना दल कमेरावादी, बाबू राम पाल की राष्ट्र उदय पार्टी, राम करन कश्यप की वंचित समाज पार्टी, राम सागर बिंद की भारत माता पार्टी और अनिल चौहान की जनता क्रांति पार्टी जैसे दलों को लेकर एक मजबूत मोर्चा तैयार किया गया है. भागीदारी संकल्प मोर्चा के संयोजक राजभर का दावा है, “हमारे मोर्चे का विकल्प खुला है. हम जिसके साथ जाएंगे उत्तर प्रदेश में उसी की सरकार बनेगी.” उन्होंने यह भी कहा कि हमने अभी सपा-बसपा से बातचीत का कोई प्रयास नहीं किया है.
भारतीय जनता पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अपना दल (एस) के अलावा निषाद पार्टी से भी गठबंधन किया था. निषाद पार्टी के अध्यक्ष डाक्टर संजय निषाद के पुत्र प्रवीण निषाद भाजपा के चुनाव चिन्ह पर लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते. हाल के उपचुनावों में संजय निषाद भाजपा के साथ खुलकर सक्रिय थे. भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष विजय बहादुर पाठक ने कहा, “सबका साथ-सबका विकास और सबका विश्वास” भाजपा का मूल मंत्र हैं और इसी आधार पर छोटे दलों को सम्मानपूर्वक भागीदारी दी गई है. गठबंधन के सभी दलों से हमारे मजबूत रिश्ते हैं जो आगे और भी मजबूत होंगे.”
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सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भी इस बार नए प्रयोग की तैयारी में है और वह भी छोटे दलों से समझौता कर सकती है. इस बीच बिहार के चुनाव परिणामों से उत्साहित असदुदीन ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन ने भी उत्तर प्रदेश में सक्रियता बढ़ा दी है. ओवैसी ने 2017 में अपने 38 उम्मीदवार उतारे थे लेकिन उन्हें एक भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली. इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उभरते दलित नेता चंद्रशेखर आजाद ने अपनी भीम आर्मी के राजनीतिक फ्रंट आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के बैनर तले उप चुनाव के जरिये दस्तक दे दी है. आजाद समाज पार्टी के उम्मीदवार को बुलंदशहर में मिले मतों के आधार पर राजनीतिक विश्लेषक दावा करने लगे हैं कि चंद्रशेखर दलित समाज में अपनी पैठ मजबूत करने में कामयाब हो रहे हैं.
बुलंदशहर में ओवैसी के उम्मीदवार दिलशाद अहमद को 4717 मत जबकि आजाद समाज पार्टी के मोहम्मद यामीन को 13402 मत मिले. ध्यान रहे कि बुलंदशहर में बहुजन समाज पार्टी के मोहम्मद यूनुस ने भाजपा की उषा सिरोही को कड़ी टक्कर दी लेकिन 20 हजार से अधिक मतों से हार गए. विशेषज्ञों का दावा है कि बसपा उम्मीदवार की हार की सबसे बड़ी वजह आजाद समाज पार्टी और ओवैसी की पार्टी बनी क्योंकि दलितों के एक वर्ग ने आजाद समाज पार्टी को और मुसलमानों के एक वर्ग ने ओवैसी की पार्टी को समर्थन दिया.
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अगर 2012 के विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो उस समय भी कई छोटे दलों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और उन्हें कुछ सीटें भी मिली लेकिन अगले चुनाव तक या तो उनका किसी दल में विलय हो गया या जनाधार कमजोर हो गया. मसलन, 2012 में पीस पार्टी ने अपना दल के साथ गठबंधन किया तब एक सीट अपना दल और चार सीट पर पीस पार्टी को जीत मिली लेकिन 2017 में पीस पार्टी का खाता भी नहीं खुला. इसके अलावा बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल ने राजभर की पार्टी से गठबंधन कर दो सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की लेकिन बाद में उसका बसपा में विलय हो गया.
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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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