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18 साल eight महीने और eight दिन की उम्र थी खुदीराम बोस की जब 11 अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई और वे शहीद कहलाए. साल 1905 में बंगाल का विभाजन होने के बाद खुदीराम बोस देश को आजादी दिलाने के लिए आंदोलन में कूद पड़े. सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया.
खुदीराम बोस स्कूल के दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लग गए थे. वे जलसे जुलूसों में शामिल होते थे और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे. उन्होंने 9वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी. जिसके बाद स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. स्कूल छोड़ने के बाद खुदीराम रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदे मातरम् पैंफलेट वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में भी बोस शामिल थे. इसके बाद एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की जिम्मेदारी दी गई और इसमें उन्हें प्रफ्फुल चंद्र चाकी का साथ मिला. दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिले पहुंचे और एक दिन मौका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया.
दुर्भाग्य की बात यह रही कि उस बग्घी में किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था. बल्कि एक दूसरे अंग्रेज़ अधिकारी की पत्नी और बेटी थीं. जिनकी इसमें मौत हो गई. इसके बाद अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी.
दिनेश उर्फ प्रफुल्ल चाकी और महज 18 साल के खुदी राम बोस को पकड़ने के लिए ब्रिटिश पुलिस पीछे पड़ी हुई थी. समस्तीपुर में पुलिस को चाकी की भनक लग गई. पुलिस ने पीछा किया, लेकिन अंग्रेजो के हाथ लगने के बजाए साहसी प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली.
प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस की फाइल तस्वीर.
उधर 18 साल के खुदीराम घटना के बाद रात भर पैदल चलते रहे. 25 मील की दूरी तय करने के बाद वो आज के खदीराम पूसा स्टेशन के पास पहुंचे. वहां एक सिपाही फतेह सिंह और शिव प्रसाद सिंह को उनपर शक हुआ और आखिरकार वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया गया. पुलिस से घिरा देख खुदीराम बोस के साथी प्रफुल्ल कुमार चाकी ने तो खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए. आखिरकार खुदीराम को पकड़कर मुज्जफरपुर लाया गया.
कहते हैं इस 18 साल के बच्चे को देखने के लिए पूरा शहर उमड़ पड़ा. खुदीराम पर बहुत अत्याचार किया गया पर उन्होंने अपने अनुशीलन समिति के बारे में एक शब्द नहीं कहा. उनका केस लड़ने के लिए कलकत्ता के एक से एक बड़े भारतीय वकील तैयार थे. वो चाहते थे कि खुदीराम आरोप से मुकर जाएं पर खुदीराम इसके लिए तैयार नहीं थे.
eight जुलाई को किसी तरह से सुनवाई शुरू हुई. केस में कई कमजोर कड़ियां थी जिसमें खुदीराम छूट सकते थे. फैसले की तारीख 13 जुलाई तय हुई. सबूतों के आधार पर खुदीराम को ज्याद से ज्याद उम्रकैद की सजा दी जा सकती थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हर दलील को किनारे करते हुए जज ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई.
सजा सुनने के बाद खुदीराम के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. वो जज को देखकर मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने जज से कहा कि मरने से पहले अगर मुझे समय दिया जाए तो मैं आपको भी बम बनाना सिखा सकता हूं. मुझे बच्चा समझा जा रहा है. 11 अगस्त की तारीख तय की गई फांसी के लिए. 11 अगस्त को सुबह 6 बजे जब फांसी का फंदा 18 साल के खुदीराम बोस का इंतजार कर रहा था तब हाथ में भगवत गीता लिए खुदीराम बोस हंसते हुए उसके पास पहुंचे और एक ऐसी कहानी लिख दी जिसे मिटा पाना असंभव है.
मुज़फ्फरपुर जेल में जिस मजिस्ट्रेट ने फांसी पर लटकाने का आदेश सुनाया था, कई रिपोर्ट्स के मुताबिक उसने बाद में बताया कि खुदीराम बोस एक शेर के बच्चे की तरह निर्भीक होकर फांसी के तख्ते की तरफ बढ़ा. जब खुदीराम शहीद हुए थे उसके बाद विद्यार्थियों और अन्य लोगों ने शोक मनाया. कई दिन तक स्कूल, कॉलेज सभी बन्द रहे और नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे, जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था.
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