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Bihar Assembly Election: बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों में समीकरण और दांव बदल गए हैं. मुकाबला सत्तारूढ़ एनडीए के भीतर और बाहर दोनों जगह होगा. क्योंकि जो पार्टी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती है, उसके जीतने की अधिक संभावना रहती है और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की उम्मीद भी.
नीतीश कुमार की पहचान रही है कि वो बीजेपी से समर्थन लेने के बाद भी उनसे एक खास दूरी बनाने में कामयाब रहते हैं. ये उनके राजनीतिक करियर का हॉलमार्क है. पिछले साल बिहार नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़ंस (NRC) के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने वाला पहला राज्य था. बाद में कई राज्यों ने इसे पारित किया. उन्होंने नोटबंदी का समर्थन किया. इसके बावजूद उनकी पार्टी केंद्रीय मंत्रिपरिषद में कम बर्थ दिए जाने के चलते शामिल नहीं हुई.
नीतीश कुमार प्रदेश की राजनीति में अलग तरह के तालमेल के लिए जाने जाते हैं. वो जनसंघ और कम्युनिस्टों के साथ भी हाथ मिला सकते हैं. वो कभी भी अपना पाला बदल सकते हैं. पिछली बार के विधानसभा चुनाव में वो ये रंग दिखा चुके हैं. बिहार में नीतीश के लगातार आगे बढ़ने की एक ये भी वजह है कि वहां बीजेपी ने स्थानीय स्तर पर कोई बड़ा नेता तैयार नहीं किया. लेकिन दिल्ली में बैठे नेता अब ये बदलना चाहते हैं. संजय जायसवाल का प्रमोशन इस बात का प्रमाण है. जायसवाल सुशील मोदी की ही जाति से आते हैं. नित्यानंद राय और गिरिराज सिंह भी भाजपा को जद (यू) की छत्र छाया से बाहर निकालने की कोशिश में लगे हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के राज में भाजपा का क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ एक अलिखित समझौता था. पार्टी केंद्र में शासन करने का लक्ष्य रखती थी. जबकि सहयोगी दल राज्यों में सरकार का नेतृत्व करते थे. लेकिन 2014 के बाद से ये समीकरण बदल गया है. पार्टी केंद्र में सहयोगी दलों पर निर्भर नहीं है. राज्यों में, इसका महत्वाकांक्षी और आक्रामक नेतृत्व एक बड़ा हिस्सा और वर्चस्व चाहता है.बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों में समीकरण और दांव बदल गए हैं. मुकाबला सत्तारूढ़ एनडीए के भीतर और बाहर दोनों जगह होगा. सीटों के बंटवारे के दौरान एनडीए के भीतर, क्योंकि जो अधिक सीटों पर चुनाव लड़ता है, उसके जीतने की अधिक संभावना है और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की. इस प्रकार, जेडी (यू) और बीजेपी के बंटवारे को लेकर खींचतान देखी जा सकती है.
राज्य में 2015 के चुनाव में ऐसे हालात बने थे कि कोई भी दो पार्टी मिलकर सरकार बना सकती थी. जेडीयू और आरजेडी ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया था, इसलिए नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. कुछ साल बाद उन्होंने भाजपा के साथ हाथ मिलाने का फैसला किया और इस पद पर बने रहे. साल 2015 में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद दिया. अधिक सीट होने के चलते लालू की पार्टी हावी होना चाहती थी.
क्या नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन का नेतृत्व करने में सहज होंगे, जहां भाजपा के पास जेडीयू से अधिक विधायक हों? लालू के साथ, वह स्पष्ट रूप से नहीं था. यही कारण है कि बिहार में ये चुनाव गठबंधन और राज्य विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की दौड़ के बारे में है.
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