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उत्तर बिहार के इलाकों में बाढ़ का आना अब आपदा नहीं, बल्कि एक सालाना रूटीन बन चुका है. राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग की साइट पर 1979 से बाढ़ के आंकड़े उपलब्ध हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक तब से आज तक पिछले 41 सालों में शायद ही कोई साल ऐसा रहा, जिस साल राज्य में बाढ़ नहीं आयी. इस मामले में फर्क सिर्फ इतना रहता है कि किसी साल बाढ़ का प्रकोप अधिक रहता है, किसी साल कम. पिछले कुछ सालों में सिर्फ 2015 और 2018 में बाढ़ का प्रकोप कम रहा. जब क्रमशः छह जिले और तीन जिले बाढ़ की चपेट में आये.
हर साल 18-19 जिलों में बाढ़
अगर 1979 से अब तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाये तो समझ आता है कि औसतन हर साल राज्य के 18-19 जिलों में बाढ़ आती है और 590 गांवों के 7.5 लाख लोग प्रभावित होते हैं. राज्य सरकार खुद राज्य के 28 जिलों को बाढ़ प्रभावित मानती है. इनमें से 21 जिले उत्तर बिहार के हैं. इन बाढ़ की घटनाओं में हर साल औसतन 200 इंसान, 662 पशुओं की जान जाती है और 30 अरब का नुकसान होता है. पौने दो लाख घरों की क्षति होती है. हर साल बड़ी संख्या में लोगों को सरकारी रिलीफ केंद्रों में रहना पड़ता है. पिछले साल भी राज्य में दो बार बाढ़ का खतरा उत्पन्न हुआ. एक बार जुलाई में तो दूसरी बार अक्टूबर में. दोनों दफा सवा लाख से अधिक लोगों को सरकारी रिलीफ केंद्रों में रहना पड़ा और उनके भोजन का इंतजाम कम्युनिटी किचेन में किया गया.
इस साल बाढ़ के साथ कोरोना भी
अब तक लोग अपने जीवट स्वभाव और सरकार व संस्थाओं द्वारा संचालित किये गये राहत अभियानों के भरोसे बाढ़ के खतरे को मात देते रहे हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ बाढ़ से मुकाबला करना होता था. मगर इस साल बाढ़ के साथ-साथ एक और खतरा उनके सिर पर पिछले चार महीने से सवार है, वह कोरोना संक्रमण का है. बिहार जैसी घनी आबादी वाले राज्य में जहां बेघरों और छोटे से जमीन के टुकड़े पर घर बनाकर रहने वाले लोगों की संख्या देश में सर्वाधिक है, वे कोरोना संक्रमण से बचने के लिए किसी तरह सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं. इसके बावजूद हाल के दिनों में राज्य में कोरोना का संक्रमण तेजी से बढ़ा है. ऐसे में अगर राज्य में बाढ़ आ जाती है और लाखों को लोगों को बेघर होकर राहत शिविरों और सामुदायिक भोजनालयों के भरोसे रहना पड़े तो वे एक साथ बाढ़ के खतरे और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए कोरोना के खतरे से कैसे बचेंगे यह लाख टके का सवाल है.
जुलाई में बढ़ी संक्रमण की रफ्तारअब तक कोरोना संक्रमण के मामले में अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाने वाला बिहार जुलाई महीने में तेजी से कोरोना की चपेट में आया है. अनलॉक खत्म होने से पहले 31 मई को राज्य में कोरोना संक्रमितों की संख्या सिर्फ 3692 थी और कोरोना की वजह से सिर्फ 23 लोगों की मौतें हुई थीं. अब महज 40 दिनों में यह संख्या 15 हजार को पार कर गयी है और मृतकों की संख्या 118 हो गयी है. राज्य के ज्यादातर अस्पतालों की स्थिति अनियंत्रित है. बड़ी संख्या में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं और बचाव को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अपने आप को रिजर्व करना शुरू कर दिया है. कुछ अस्पतालों में मरीजों के साथ दो-दो दिन तक शवों के पड़े रहने से जुड़े वीडियो वायरल हो रहे हैं. ये आंकड़े और ऐसी खबरें यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अब राज्य में कोरोना संक्रमण, स्वास्थ्य विभाग की पकड़ से बाहर हो चला है. राज्य के सभी 38 जिलों में बड़ी संख्या में कोरोना के मरीज इलाजरत हैं. गांव-गांव तक संक्रमण पहुंच चुका है. ऐसे में लोगों का रिलीफ कैंपों में रहना निश्चित तौर पर कोरोना संक्रमण की स्थिति को और विस्फोटक बनायेगा. और तब उस स्थिति को संभालने के लिए हमारे पास कोई उपाय नहीं होगा.
बाढ़ और कोरोना, दोनों से बचाव
हालांकि, बिहार का आपदा प्रबंधन विभाग यह दावा कर रहा है कि वह राहत शिविरों में सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना से बचाव को लेकर भी काम कर रहा है. विभाग ने बाढ़ प्रभावित जिलों के सभी जिलाधिकारियों को निर्देश दिया है कि संक्रमण रोकने के लिहाज से इस साल राहत शिविरों की संख्या बढ़ाई जाये ताकि उनमें सोशल डिस्टेंसिग का ख्याल रखा जा सके. सभी बाढ़ पीड़ितों की शिविर में प्रवेश से पहले कोरोना के लिहाज से स्क्रीनिंग की जाये और संक्रमित पाये जाने वाले एसिंप्टोमेटिक लोगों को शिविर में ही अलग रखा जाये, लक्षण वाले मरीजों को अस्पताल में भेजा जाये. शिविर में बुजुर्गों, दिव्यांगजनों, गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए अलग खंड बनाये जायें. बचाव कार्य में लगे नावों और बोटों को नियमित सेनीटाइज किया जाये. मगर योजना के स्तर पर ये बातें जितनी अच्छी लग रही हैं, इनके अनुपालन में वैसी ही सतर्कता बरती जायेगी, यह कहना मुश्किल है.
अफरातफरी में होते हैं बचाव और राहत कार्य
बाढ़ जैसी आपदा के समय में जिस अफरातफरी में बचाव और राहत कार्य होते हैं, उस लिहाज से भी यह सब करना आसान नहीं लगता. इसके अलावा राज्य की स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था के पुराने रिकार्ड भी यह बताते हैं कि वह राजधानी पटना में बनी बेहतरीन योजनाओं का दस फीसदी भी जमीन पर लागू नहीं करवा पाती. उदाहरण के तौर पर हर साल आपदा प्रबंधन विभाग अप्रैल-मई महीने में राज्य के बाढ़ प्रभावित सभी 28 जिलों के जिलाधिकारियों को एक विस्तृत पत्र भेजकर समय से पहले बाढ़ के खतरे से बचाव की तैयारी करने के लिए दिशानिर्देश देता है. इनमें 23 विंदुओं में साफ-साफ समझाया गया होता है कि क्या करना है.
कोरोनाकाल में कैसे होगा राहत का इंतजाम
राहत केंद्रों की व्यवस्था, नावों, बोटों के इंतजाम, गोताखोरों की नियुक्ति, राहत सामग्रियों की खरीद, सुरक्षा तटबंधों की निगरानी, चेतावनी की प्रक्रिया से लेकर पालतू पशुओं के लिए चारे के इंतजाम तक की बात होती है. मगर हर साल यह देखा जाता है कि बाढ़ आने तक इनमें से कोई इंतजाम ठीक से नहीं किया गया है. हर साल अफरा-तफरी मचती है और पहले हफ्ते लोगों को स्वयंसहायता समूहों की मदद पर ही गुजारना पड़ता है. राहत केंद्र और सामुदायिक भोजनालय खुलने में हफ्ते से दस दिन का वक्त लग जाता है. अगर प्रशासन रूटीन के तौर पर हर साल आने वाली बाढ़ के लिए तैयारी नहीं कर पाता है तो इस बार वह कोरोना संक्रमण के लिहाज से अपनी तैयारी ठीक से कर पायेगा, इस बात पर सहज विश्वास नहीं होता. राहत केंद्रों में सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल रखा जायेगा, बुजुर्गों, गर्भवती महिलाओं और बच्चों के रहने की अलग व्यवस्था होगी, सबको मास्क मिलेगा, नावों और बोटों को नियमित सेनीटाइज किया जायेगा, हर बाढ़ पीड़ित की कोरोना के लिहाज से स्क्रीनिंग होगी, यह सब अभी भी कल्पना से परे लगता है.
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