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भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद (Chandrashekhar Azad) ने आजाद समाज पार्टी बनाई है. इससे पहले आधिकारिक तौर पर उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा है. समझा जाता है कि 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले वो बिहार (Bihar Assembly Election 2020) में अपनी पार्टी की रिहर्सल करने उतर रहे हैं. उन्होंने वहां की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान किया है.
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बिहार में बसपा का सबसे अच्छा प्रदर्शनबिहार में 15.91 फीसदी दलित वोट है. यहां साल 2000 के चुनाव में बसपा ने अपना सबसे शानदार प्रदर्शन किया था. 1.89 फीसदी वोट के साथ तब उसके 5 विधायक चुनकर आए थे. लेकिन उसके बाद मायावती की पार्टी कभी ऐसा जादू नहीं दिखा पाई. क्योंकि उन्होंने बिहार में किसी नेता को बसपा का फेस नहीं बनाया. उनका फोकस यूपी पर ही रहा. वहां पर दलित वोटों की सियासी फसल रामविलास पासवान काटते रहे हैं. अब क्या यह युवा दलित नेता वहां पर कुछ करिश्मा कर पाएगा?
हमने इस सवाल का जवाब तलाशा बिहार के ही रहने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर सुबोध कुमार से. वो कहते हैं, “बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान में प्रजातंत्र के जिस प्रजातांत्रीकरण की नींव रखी थी वो अब भी जारी है. दलितों के सियासी ढांचे में प्रजातांत्रीकरण होना बाकी है. उसका रिप्रजेंटेशन कौन करेगा, बस यह तय करना है. जहां तक बिहार की बात है तो मुझे नहीं लगता कि यहां पर चंद्रशेखर आजाद को कोई सफलता मिलेगी.
बिहार के लोग उन्हें बाहरी बताएंगे. क्योंकि चंद्रशेखर ने वहां पर न तो कोई सामाजिक आंदोलन किया है और न राजनैतिक. वो सीधे वोट मांगने जा रहे हैं. उन्होंने यह भी नहीं बताया है कि वहां पर उनकी पार्टी का चेहरा कौन होगा. हां, वो बिहार में बसपा को मिलने वाले वोट में जरूर सेंध लगा सकते हैं. वहां उन्हें दलित वोटों के लिए पासवान, माझी और मायावती तीनों से पार पाना होगा.”
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लेकिन क्या यूपी में बसपा को होगा नुकसान?
इस वक्त यूपी में बसपा सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. मायावती के कई नजदीकी लोग पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. साथ ही बसपा का वोटबैंक 2007 के बाद से लगातार खिसक रहा है. ‘बहनजी: द राइज एंड फॉल ऑफ मायावती’ नामक किताब के लेखक अजय बोस कहते हैं कि बसपा अभी पारंपरिक राजनीति करती है जबकि चंद्रशेखर दलित युवाओं के आईकॉन बनकर उभर रहे हैं. उसकी नए तरह की राजनीति है, उनके राजनीतिक उभार से बसपा को बहुत नुकसान हो सकता है. कांग्रेस भी अंदरखाने चंद्रशेखर आजाद को प्रमोट कर रही है.
रामविलास पासवान बिहार में सबसे बड़े दलित नेता हैं
दलित एक्टिविस्ट क्या सोचते हैं?
हालांकि, दलित एक्टिविस्ट डॉ. सतीश प्रकाश कहते हैं कि दलित मूवमेंट की धरती बहुत उपजाऊ है. इस पर जो भी फसल बोई जाती है वो उग जाती है. लेकिन इसमें सामाजिक आंदोलन के जरिए ही घुस सकते हैं. यहां आपको ध्यान रखना होगा कि सामाजिकता की कच्ची सड़क पर राजनीति की तेज गाड़ी नहीं चल सकती. जिन लोगों ने ऐसा करने की कोशिश की है वहां नुकसान की संभावना ज्यादा बनती है.
मेरठ यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर सतीश प्रकाश कहते हैं कि बात चंद्रशेखर की हो या किसी और की. कोई भी व्यक्ति पार्टी बना सकता है और चुनाव लड़ सकता है. उसकी वजह से दलित मूवमेंट को मजबूती मिलती है तो उसे राजनीति में जरूर आना चाहिए. लेकिन अगर उसके राजनीति में आने से दलितों का पॉलिटिकल मूवमेंट कमजोर होता है तो उन्हें अपने निर्णय पर फिर से विचार करना चाहिए.
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